गोधूलि - 1 Priyamvad द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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गोधूलि - 1

गोधूलि

(1)

उस साल ऋतुएं थोड़ा पहले आ गयीं थीं। इतना पहले कि वसंत अभी कोहरे में ही था। इसकी सफेदी और ठंडी नमी ने पेड़ों के पीले पत्तों को गिरने से रोक रखा था। बुलबुलों के गलों के रंग भी अभी सुर्ख होना शुरू नहीं हो पाये थे। कोयलें अभी कामातुर नहीं हुयीं थीं। अंधेरे बिलों में दुबके सांपों के खून अभी जमे थे। ऐसे ही कुछ बेतुके से दिनों में, जब प्रार्थनाओं में ईश्वर नहीं थे, करूणा अकारण थी और वसंत में पीली उदासी नहीं थी, अचानक एक दिन, तीन डर, मेरे अन्दर एक के बाद एक जन्मते चले गये। मेरे डराें का इन दिनों से कोई ताल्लुक नहीं था। प्रार्थनाओं, करूणा और वसंत से भी नहीं था। उन का ताल्लुक घोड़ों, कविता और पिता से था।

बचपन से ही मुझे घोड़ों से प्यार था। मनुष्य के अलावा धरती पर, दूसरा प्राणी घोड़ा ही था, जो मुझे आकर्षित करता था। उसका शरीर, उसकी शक्ति, गति, उठान मुझे हमेशा ही मनमोहित करते थे। मनुष्य के साथ धरती को रौंदने में उसकी हिस्सेदारी मुझे उसके प्रति अव्यक्त सम्मान से भर देती थी। यह घोड़े ही थे जो सूर्य का रथ खींचते थे। संसार को वह देख सके इसके लिये उसे आकाश में ले जाते थे। वहां वह अपनी किरणों के केश खोल कर जगत को उजालों से भर देता था। ये घोड़े अपने नन्हें, धारदार खुरों से आल्प्स से गंगा तक, वोल्गा से अरब के रेगिस्तानों के पार, जब दौड़ते थे, इनकी उड़ती हुयी अयालें, तनी मांसपेशियां, थिरकते पुट्‌ठे और जबड़ों के किनारे का फेना, देवताओं के अन्दर उत्ताल ईर्ष्या और स्त्रियों के अंदर अग्निमयी कामुकताएं पैदा करता था। ये सर्वत्र थे। ये खेतों में थे, युद्ध में थे, खेलों मे थे। ये सरायों में थे, जुआघरों में थे, मनुष्य के गीतों में थे। मनुष्य ने देवताओं की तरह ही, इन घोड़ो की शक्ति और सौन्दर्य की उपासना की थी। इनकी स्तुतियाँ रची थीं। प्रेमिकाओं का अपहरण करने वाले स्वर्ण पुरूष, इन पर बैठ कर ही आते थे। इनकी रक्तरंजित देहों पर ही साम्राज्याें के मानचित्र बनते बिगड़ते थे। युद्धों में मनुष्य के बराबर इनकी लाशें भी गिरती थीं। मनुष्याें के साथ इन्होंने भी इतिहास बनाए थे। युद्धों में ये विजय और सत्ता के प्रतीक थे। इनकी बलि से पहले प्रतापी राजाओं की मानिनी रानियाँ इनसे सार्वजनिक संभोग करने में गर्व अनुभव करती थीं। मन्दिरों में देवताओं के साथ इनके भी दीर्घ, उत्तेजित, भव्य शिश्न बने थे। यज्ञ में इनकी बलि का मांस पवित्रतम प्रसाद होता था।

मेरे शहर में घोड़े अब नही दिखते थे। पहले भी जो दिखते थे, वे इक्के या तागें में जुते होते थे। गर्दन झुकाए, अपने ऊपर लदे लोगों को खींचते, कराहते, चाबुक पड़ने पर धीरे धीरे दौड़ने की कोशिश करते। कभी पुलिस के घुड़सवार निकलते तो एक साथ कई घोड़े दिख जाते थे। ये इक्कों में जुते हुए घोड़ाें से अलग होते थे। ये मजबूत उठान वाले, फुर्तीले, ऊँचे और ताकत की ऐंठ से भरे होते थे। ये एक सी चाल, एक ही टाप में चलते थे। ये कसे पुटठों, उभरीे, थरथराती नसों वाले और चिकनी खाल वाले थे। इनकी छोड़ी हुई लीद पर मक्खियाँ नहीं बैठती थीं। ये अब सलामी देने के लिए पाले जाते थे। जरूरत पड़ने पर कभी कभी इन्हें इन्सानों के झुंड पर दौड़ा कर उन्हें डराने का काम भी लिया जाता था। कभी किसी महामहिम की बग्घी खींचने और उसके आगे लहराते झंडे लेकर चलने में भी इनकी जरूरत पड़ती थी। इन्हें अभी तक इसलिए पाला पोसा जा रहा था, क्याेंकि कानून की किताबों में अभी इनके बने रहने पर बहस नही हुयी थी। इस पर भी नही हुयी थी कि इनके रख—रखाव, दाना पानी के खर्चे गैर जरुरी थे। इस पर तो बिल्कुल भी नही हुयी थी कि एक साथ इतने मजबूत घोड़ाें का सड़क पर निकलना, मनुष्य को छोटा और हीन बनाता है। उसे आतंकित और अपमानित करता है।

इन घोड़ों की मादाँए शादियों में दिखती थीं। उन पर एक लड़का बैठा होता था। उनकी तरह वह भी चमकदार कपड़ाें में ढका हुआ, मादा की टापों और थिरकन से चुपचाप सिहरता रहता था। घोड़ी उसे लेकर उड़ न जाए इसलिए एक आदमी उसकी लगाम पकड़े रहता था। इसके अलावा घोड़े रेस मे दिखते थे। मेरे शहर मे रेस का मैदान नही था इसलिए वैसे घोड़े नहीं थे। इसलिए घोड़ों को बड़ा करके पालने और बेचने वाले शौकीन भी शहर में नहीं थे। इसलिए उनके बड़े अस्तबल नहीं थे। इसलिए घोड़ाें की भाषा समझने और उन्हें प्यार करने वाले साईस भी अब नहीं थे। घोड़ों पर बोली लगाने वाले भी अब नहीं थे। पर शहर मे घोड़ाें पर कसी जाने वाली चमड़े की काठियाँ ज़रूर बनती थीं। ये बहुत ज्यादा बनती थीं। ये पूरी दुनियाँ मे जाती थीं। भेड़ के बच्चाें से बने मुलायम चमड़े की काठियाँ आकार मे बड़ी और भारी होती थीं। इनसे पता लगता था कि दुनियाँ मे अभी लाखों घोड़ें हैं। अभी भी लोग उन्हें प्यार करते हैं। कभी कभी पर्दों पर दौड़ते रेस के घोड़ाें को देखकर यह विश्वास रहता था कि घोड़ाें की ताकत, फुर्ती, उठान, गति, अभी वैसी ही है। अभी भी यही सूर्य का रथ खींचते हैं। विश्व देखने के लिए उसे आकाश में ले जाते हैं। वहाँ वह अपनी किरणाें के केश को खोल कर संसार को उजाले से भर देता है। घोड़ाें के प्रति मेरा सम्मान कम नहीं हो पाता था।

इस बात का मुझे अव्यक्त सुख और गहरा संतोष था, कि पहले की तरह लड़ाईयों में अब घोड़े नहीं मरते थे। युद्ध के मैदान उनके असंख्य शवों या घावों पर बैठी मक्खियों से, उनकी दुर्गन्ध और रक्त से भरे नही रहते थे। मौत से पहले की उनकी आखिरी कंपकंपाहट और हिनहिनाहट का इंतजार करते, आकाश में मंडराते बेचैन और भूखी आंखो वाले गिद्ध भी अब नहीं दिखते थे। हांलांकि युद्ध पहले से ज्यादा हो रहे थे, लोग भी पहले से ज्यादा मर रहे थे, पर घोड़े नहीं। इन युद्धों मे घोड़ाें की जरूरत खत्म हो गयी थी। युद्ध मे अब हथियार थे और मारे गए इन्सानाें की लाशें थीं। मारने वाले भी नहीं दिखते थे। लड़ाइयों को जीतने वाले सैनिकों की हुंकार और उन्माद भी नहीं दिखता था। अलबत्ता युद्ध मे जीवन बचाने के लिए भागते बच्चे, औरतें, बूढ़े, बीमार, अपहिज बहुत दिखने लगे थे। ये छोटी छोटी गठरियाँ उठाए, डरी हुयी आँखें, भूखी देहों के साथ नंगे पांव, बदहवास, ऊँची नीची पगडंडियों पर घिसटते नदी पार करते, बर्फीले पहाड़ों के दर्रो में रेंगते किसी गुफा में छुपे दिखाई देते थे। इस सफर में इन्हें अक्सर पता नहीं होता था कि ये क्यों भाग रहे हैंंं ? किसका युद्ध हो रहा है? कौन किससे लड़ रहा है? ये किस ओर हैं ? कोई उन्हें क्यों मारना चाहता है? इन सवालों के उत्तर पहले घोड़ाें से मिल जाते थे। घोड़े पर राजा बैठा होता था। उसका देश, देश की पताका, वेशभूषा, हथियार सब घोड़ों पर होता था। घोड़ाें के द्वारा ही लोग शत्रु को पहचान लेते थे। अब घोड़े नहीं थे, इसलिए इन सवालों के उत्तर भी नहीं थे।

युद्ध के बाद दुनिया को जीतने की इच्छा रखने और इस इच्छा की सार्वजनिक घोषणा करने वाले यज्ञ भी अब नही होते थे। इसलिए ऐसे यज्ञों मे पूजे जाने वाले घोड़े भी नहीं थे। इसलिए घोड़े से रानियों के सार्वजनिक संभोग की जरूरत भी खत्म हो गयी थी। घोड़े के स्तुतियाें का पाठ, उनकी बलि के पवित्र मांस की जरूरत भी नहीं थी। वास्तव मे मनुष्य और घोड़े के बहुत से सम्बन्ध अब खत्म हो गये थे।

घोड़े का न दिखना या मनुष्याें से इनके बहुत से सम्बन्धों का खत्म हो जाना मेरे डर का कारण नही था। बहुत सी चीजें अक्सर या फिर धीरे धीरे या फिर अचानक ही खत्म होकर दिखना बंद हो जाती हैं, जैसे कि प्रेमिका, नदी या कुछ शब्दों का फिर कभी न दिखना। यह न दिखना भय पैदा नही करता। घोड़ाें का न दिखना भी। बल्कि इससे अलग मेरे भय का कारण एक सौ तीस घोड़ों को एक साथ मरते हुए देखना था। ये अचानक नहीं, धीरे धीरे मर रहे थे। कई महीनों से मर रहे थे। मैं इन्हें रोज देखता था। पहले इनकी खाल के रोयें झड़ने शुरू हुए। फिर जोड़ों पर जख्म हुए, फिर इनकी हड्‌डियाँ चमड़े से बाहर निकल आयी थीं। ये खड़े नही रह सकते थे। ये अब लेट गये थे। इनके जख्मों पर मक्खियाँ बैठने लगीं थीं। उनसे दुर्गन्ध आने लगी थी। कभी कभी बंद आंखें खोलकर ये अचानक सिहर कर पूरी देह हिलाते, तो लगता जैसे अभी उठेंेगे और छलाँगें मारते हुए मैदान, घाटियाँ, पर्वत, नदी पार कर जाएंगें। इनकी टापों और हुंकारों से धरती काँपने लगेगी। उनकी नसें फट चुकी थीं। खाल चटक गयी थी। मरते हुए उनकी गीली आँखाें के कोनों पर मनुष्य के लिए, अपनी आती हुयी मृत्यु के लिए, इस सम्पूर्ण सृष्टि के लिए गहरा अविश्वास था। भर्त्सना थी, घृणा थी।

ये भूख से मर रहे थे। ये भूख से उसी तरह मर रहे थे, जैसे इंसान मरते हैं। भूख से मरते हुए इंसान हमारे अंदर डर पैदा नही करते, क्याेंकि वे हमारी आदत मे शामिल हो चुके होते हैं। पर ये घोड़े पैदा कर रहे थे। इनकी आँखो में पीड़ा नहीं थी। जीवन की याचना नहीं थी। भूख की तड़प नहीं थी। सिर्फ एक गहरा अविश्वास और घृणा थी। इनकी आँखाें मे यह सब इतना गहरा था, कि जो कुछ मर गये थे, उनकी फैली, फटी आँखो में यह सब बचा रह गया था। अन्न से भरी दुनिया मे, असंख्य पेट भरे मनुष्यों के बीच ये भूख से इसलिए नहीं मर रहे थे कि इनके लिए अन्न नहीं था। ये इसलिए मर रहे थे कि अन्न के बदले अब ये कुछ दे नहीं पा रहे थे। वे अब राजाओं की बग्घी नहीं खींच सकते थे। दुल्हाें को पीठ पर बैठा कर अब ठुमक नहीं सकते थे, सलामी नहीं दे सकते थे। रानियाें से संभोग नही कर सकते थे।

यह सुबह की श्ुरूआत थी जब मैने उन्हें देखा और डरा। मुझे लगा मेरा यह अनायास जन्मा डर उसी तरह खत्म हो जाएगा जैसे और भी डर खत्म हो जाते हैं। उसी तरह, जिस तरह स्वप्नों में निरन्तरता, प्रार्थनाआें मे उम्मीदें और चुम्बनों मे तृप्ति खत्म हो जाती है। सृष्टि और जीवन के धीरे धीरे खत्म हो जाने के प्रति मै हमेशा से आश्वास्त रहा हूँ, इसलिए उस डर ने मुझे उतना नहीं डराया, जितना डरा सकता था या डराना चाहिए था। इसके अलावा भी, मैं उतना इसलिए नही डरा, क्योंकि डर से बचने के लिए मैने एक रास्ता चुन रख था। डरने पर मैं कुछ ऐसे काम करने लगता था जो वैसे मैं सामान्य रूप से जीवन में नहीं करता था। जैसे कि जेबों मे हाथ डालकर गलियों मे घूमते हुए सीटी बजाना या फिर उभरे नितम्बों वाली किसी लड़की को देर तक पीछे से घूरना या लोगों से कंधे टकराते हुए, मन में उन्हें गालियाँ देते हुए चलना।

मैं जब इस भय से जूझ रहा था तभी दरवाजे पर दस्तक हुयी थी। अब दरवाजें पर कोई दस्तक नही देता है। पहले सब देते थे। हर दस्तक की एक गुप्त भाषा होती थी। बिना दरवाजा खोले ही लोग आने वाले को पहचान लेते थे। कुछ दस्तकों का समय आने वाले का इरादा भी बता देता था। कुछ दस्तक गोपनीय तरीके से दी जाती थीं। इनमें बहुत से रहस्य छुपे रहते थे। ये रहस्य आत्मा के होते थे। देह के होते थे। कभी किसी खास दस्तक की प्रतीक्षा मे लोग पूरी उमर बिता देते थे। कभी किसी दस्तक के होते ही जीवन छोड़ देते थे। दस्तक के अर्थ तब उतने ही सूक्ष्म थे जितने लालसा के, उतने ही विराट थे, जितने माया के। जीवन मे दस्तक उसी तरह शामिल थी, जैसे वासना मे उत्तेजना, नक्षत्रों मे लय और चीख में धार। पर मनुष्य और दस्तक के सम्बन्ध भी उसी तरह खत्म हो गए थे, जैसे मनुष्य और घोड़े के।

मै भी दस्तक से आने वाले को पहचान लेता था, पर इससे नहीं पहचान पाया क्योंकि यह दस्तक पहली बार सुनी थी। इसके अलावा यह दस्तक वैसी नही थी जैसी समान्यतः होती है। यह घुटी हुयी सिसकी की तरह थी। गिरते हुए पंख की तरह थी। संतृप्त चुम्बन की तरह थी। मैने दरवाजा खोला। दरवाजे पर कोहरे की तरल सफेदी दिखी। मुझे लगा दस्तक उसने दी है। वसंत का उदास पीलापन दिखा। मुझे लगा दस्तक उसने दी है। फिर एक व्यक्ति दिखा। दस्तक उसने दी थी। उसकी बढ़ी हुयी दाढ़ी और लम्बे, काले सफेद बालों ने, उसके चेहरे को ढक लिया था। उसके कंधाें और पीठ पर तीन बड़े थैले लटक रहे थे। एक हाथ मे कैमरे का स्टैंड था। दूसरे हाथ के पॉलीथीन में हल्के जले हुए समोसे थे। समोसों पर लाल पीले रंग की पतली चटनी चिपकी थी। पाँवों मे नीले पट्‌टे वाली रबर की चप्पल थी। पंजों पर धूल थी। बिना क्रीज को कुचली हुयी पतलून पर धारीदार हरा कुर्ता था। मोटे शीशों वाले चश्मे के पीछे दिखती अाँखों मे सफेद कीचड़ और बेचैनी थी। सर पर मोटे ऊन की बुनी हुयी टोपी थी। कुछ क्षण बाद मैने उसे पहचान लिया। मै उसे तीस साल बाद देख रहा था। मै उससे लिपट गया। उसके दोनो हाथाें में सामान था, इसलिए वह मुझसे चिपका खड़ा रहा।

मैं दरवाजे के एक ओर हट गया। दरवाजे पर चप्पल उतार कर वह अंदर आ गया। कमरे में आकर उसने चाराें ओर देखा। वह अपना सामान रखने की जगह तलाश रहा था। एक खाली दीवार देखकर उसने कैमरे का स्टैंड उस के साथ टिका दिया। कंधों और पीठ पर लटके हुए दोनों थैले भी उसने दीवार के साथ रख दिए। हाथ की पॉलीथीन को चौकोर मेज पर रख कर, कुर्सी पर बैठ गया। उसके सामने मैं बैठ गया।

मैनें अब उसे ध्यान से देखा। चश्मे के पीछे पिचकी आँखों में पीलापन था। जो सफेद कीचड़ के साथ मिल कर कोहरे में वसंत की तरह दिख रहा था। गले पर एक दूसरे से सटी, मोटी सिकुड़नें थीं। वह मुस्कुराया ”क्या तुम मुझे एक कप चाय पिलाओगे“?

‘‘हाँ‘‘ मैं फौरन उठ गया।

”सिर्फ चाय.... खाने के लिए मैं अपने साथ ले आया हूँ“ उसने समोसे की तरफ इशारा किया।

”क्यों“?

”यूँ ही। सोचा पता नहीं तुम क्या कर रहे हो? किस हाल में हो? थोड़ी भूख भी लग रही थी‘‘। वह बेपरवाही से हँसा ”इसमें दो हैं। एक मेरा एक तुम्हारा। मैं नीचे बैठ जाऊँ?‘‘ उसने फर्श की ओर इशारा करके पूछा। मैं हँसा और चाय बनाने अंदर चला गया।

चालीस साल पहले मैं अक्सर ही शाम को उसके छोटे, पर बेहद खूबसूरत होटल में चला जाया करता था। वास्तव मे वह उसका पुराना पुश्तैनी घर था। उसने अब उसे होटल डी कश्मीर बना दिया था। उसमे रहने के पांच कमरे थे। बहुत सुन्दर, बड़ा, हरा—भरा लान था। नीची रौशनी के बीच क्यारियों मेें मौसम के रंगीन फूल खिले रहते थे। गर्मियों की शाम और सर्दियों की धूप में दोपहर के समय लोग कश्मीरी कबाब और बियर पीने आते थे। वहाँ कभी ज्यादा भीड़ नही होती थी। हल्के अंधेरे में धीरे धीरे फुसफुसाते हुए, धनी, सम्भ्रांत लोग शालीनता के साथ बातें करते थे। मैं जब भी जाता, जवाकुसुम के नीचे पसरे अंधेरे में कुर्सी डालकर बैठ जाता था। अक्सर वह हाल के अंदर काउंटर पर या किचन में होता था। अंदर से ही मुझे देख लेता। मेरे लिये एक ठंडी बियर भेज देता। मैं चुपचाप बियर पीता रहता। बीच—बीच में मौका निकाल कर वह कुछ देर के लिये मेरे पास आ जाता। कुर्सी खींच कर कुछ देर बैठता फिर उठ जाता। थोड़ी रात बीत जाती, तो भीड़ कम होने लगती। तब एक बियर अपने लिए, एक और मेरे लिए लेकर वह आता, और साथ बैठ जाता। वह मुझसे कविताएं जरूर सुनता। अक्सर मेरी लिखी या फिर दूसरों की। कभी पढ़ी हुई कोई कविता, खुद भी सुनता। वह अक्सर कहता था कविता का अर्थ स्त्री के सुन्दर स्तनों की तरह होना चाहिये। न बहुत सूक्ष्म न बहुत स्थूल।

कई सालों तक ऐसे ही चला, जब तक कि वह असमर्थताओं और शक्तियों के बीच की दूरी खत्म करने वाली क्रान्ति के कुछ जरूरी और व्यवहारिक सूत्र बताने के लिये प्रधानमंत्री से मिलने नहीं गया। कुछ दिन पहले उसने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था कि ये सूत्र उसे, स्थिर स्वप्नों और गतिशील नक्षत्रों से मिले हैं। उनसे मिल कर वह इनके बारे में विस्तार से बताना चाहता है। उसने मिलने का समय मांगा था। कुछ दिन बाद प्रधानमंत्री कार्यालय से पत्र आया। उसे दफ्तर बुलाया गया था। वह गया। वहां एक छोटे अधिकारी ने उसका स्वागत किया। उससे बात की। उसने प्रधानमंत्री से ही बात करने की जिद की। अधिकारी ने उसे विनम्रता से समझाया कि प्रधानमंत्री से सीधे नहीं मिला जा सकता। वह सब कुछ पहले उसे बताए। यदि वह उचित और आवश्यक समझेगा, तब ये बातें अपने बड़े अधिकारियों को बतायेगा, फिर वे प्रधानमंत्री को बतायेंगे। उसने बात मान ली। उसने सबसे पहले अधिकारी को देश के स्वर्णिम अतीत पर एक कविता सुनायी, फिर देश की वर्तमान बदहाल स्थिति पर एक कविता सुनायी। फिर इस स्थिति को बदलने के लिए क्रांति करने की जरूरत पर एक कविता सुनायी, फिर उस संघर्ष पर कविता सुनायी जो क्रांति करने के दौरान जरूरी होता है। फिर क्रान्ति की निश्चित सफलता पर कविता सुनायी। अंत में उस युग और यूटोपिया पर एक कविता सुनायी जो उस क्रान्ति के बाद आएगा। अधिकारी ने धैर्य से उसकी कविताएं सुनीं। बीच बीच में कुछ शब्दों और प्रतीकों के अर्थ पूछे। उन्हें कागज के उस टुकड़े पर लिखा जो वह मुठ्‌ठी में दबा कर अपने साथ लाया था। अंत में अधिकारी ने उससे कहा कि ये कविताएं हैं। सूत्र, विचार और कार्यक्रम नहीं, जैसा उसने पत्र में लिखा था। तब उससे बताया कि सूत्र और विचार, गुप्त तरीके से कविता में छुपा दिए जाते है। उन्हें ढ़ूँढ़ना पड़ता है। इसका प्रमाण देने के लिए उसने फिर कुछ कविताएं सुनायीं। उनमें छुपे सूत्र समझाए। विचार बताए। फिर उसने कहा कि अधिकारी होने के लिए भी कविता की समझ जरूरी है। अगर वह कविता नहीं समझेगा, तो मनुष्य को कैसे समझेगा? मनुष्य को नहीं समझेगा, तो देश कैसे चला पाएगा? अंत में कविता न समझ पाने की अधिकारी की निराशा और भय को दूर करने के लिए, तथा उसे प्रोत्साहित करने के लिए, उसने अधिकारी से कहा कि कविता का अर्थ समझना कठिन नहीं होता, क्याेंकि कविता का अर्थ स्त्री के अंदर स्तनों की तरह होता है। यहाँ पर अधिकारी ने बात खत्म कर दी। उसे दूसरे दिन बुलाया। दूसरे दिन जब वह कार्यालय गया, तो उसे मुख्य द्वार से ही लौटा दिया गया।